Posted by admin on 2025-09-30 18:26:12
पृथ्वी जीवन की अनमोल धरोहर है। नदियाँ, सागर, पर्वत, हरियाली और जीवन जगत का संतुलन इस धरा को अद्वितीय बनाता है। किंतु मानव ने प्रगति की अंधी दौड़ में इस संतुलन को बिगाड़ दिया है। आज पूरी दुनिया के सामने खड़ा सबसे बड़ा संकट है जलवायु परिवर्तन और उसका सबसे खतरनाक रूप ग्लोबल वॉर्मिंग। पिछले देडसौ वर्षों में पृथ्वी का औसत तापमान लगभग १.१ डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। यह वृद्धि सुनने में भले मामूली लगे, परंतु इसके परिणाम विनाशकारी साबित हो रहे हैं। सूखा, बाढ़, चक्रवात, भीषण गर्मी, हिमनदों का पिघलना और समुद्र तल में लगातार हो रही वृद्धि इसी तापमान वृद्धि के दुष्परिणाम हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की हवामान परिवर्तन समिति ने चेतावनी दी है कि यदि तापमान वृद्धि २ डिग्री सेल्सियस से अधिक हो गई तो मानव सभ्यता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।
इस संकट की जड़ें स्वयं इंसान की गतिविधियों में छिपी हैं। कोयला, पेट्रोल, डीज़ल जैसे जीवाश्म ईंधनों का अंधाधुंध इस्तेमाल, कारखानों से निकलने वाला धुआँ, वाहनों का प्रदूषण, शहरीकरण और औद्योगीकरण की होड़, वनों की अंधाधुंध कटाई इन सबने वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड जैसी हरितगृह गैसों की मात्रा असामान्य रूप से बढ़ा दी है। ये गैसें सूर्य से आने वाली ऊष्मा को वापस अंतरिक्ष में लौटने नहीं देतीं और पृथ्वी के वातावरण में फँसा देती हैं। परिणामस्वरूप धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि पृथ्वी गरम नहीं हो रही, बल्कि मानव का भविष्य जल रहा है।
भारत भी इस संकट से अछूता नहीं है। २०१६ में लातूर में पानी की इतनी कमी हुई कि रेलगाड़ियों से पानी मंगाना पड़ा। वहीं २०२१ में कोल्हापुर और सांगली में आई भीषण बाढ़ ने हजारों घरों को डुबो दिया और जन-जीवन अस्तव्यस्त कर दिया। यह विरोधाभासी तस्वीर स्पष्ट करती है कि जलवायु परिवर्तन हमारे जीवन को किस तरह पलट-पलट कर रख रहा है।
कृषि इस संकट का सबसे बड़ा शिकार बनी है। बारिश का समय और पैटर्न पूरी तरह बदल गया है। कभी बारिश समय पर नहीं होती और सूखा पड़ जाता है, तो कभी अचानक मूसलाधार बारिश होकर फसलें बहा ले जाती है। गेंहूँ, कपास, सोयाबीन, धान जैसी प्रमुख फ़सलें प्रभावित हो रही हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार पिछले बीस वर्षों में गेंहूँ का उत्पादन लगभग दस प्रतिशत घट चुका है। किसान कर्ज़ में डूबते जा रहे हैं और मजबूरी में आत्महत्या कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन अब केवल पर्यावरण का नहीं बल्कि ग्रामीण भारत की सामाजिक-आर्थिक त्रासदी का बड़ा कारण बन चुका है।
शहर भी इस संकट से अछूते नहीं हैं। पुणे, नागपुर, औरंगाबाद जैसे शहरों में गर्मी के दिनों में तापमान ४५ डिग्री सेल्सियस के ऊपर पहुँच जाता है। वृद्ध, बच्चे और कामगार वर्ग लू की चपेट में आ जाते हैं। डिहाइड्रेशन तथा श्वसन संबंधी रोग बढ़ रहे हैं। सच्चाई यही है कि हमने अपने शहरों की छाँव छीन ली है, इसलिए धूप का कहर हर साल और बढ़ता जा रहा है।
समुद्र तटवर्ती क्षेत्रों की स्थिति और भी भयावह है। ध्रुवीय हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं और समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि २०५० तक मुंबई का कुछ हिस्सा समुद्र में डूब सकता है। कोकण के मछुआरों की रोजी-रोटी पर भी संकट आ गया है। चक्रवातों की संख्या और तीव्रता दोनों में वृद्धि हो रही है। इन चक्रवातों से जन-धन की भारी हानि हो रही है।
ग्लोबल वॉर्मिंग का असर केवल मनुष्यों पर ही नहीं बल्कि जैवविविधता पर भी हो रहा है। पश्चिम घाट के दुर्लभ पक्षी, बाघों का प्राकृतिक आवास और समुद्री मछलियों के भंडार नष्ट होने की कगार पर हैं। अन्न श्रृंखला बिखर रही है। पानी, भोजन और ऊर्जा जैसे बुनियादी संसाधन संकट में आ गए हैं। विशेषज्ञ पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि भविष्य के युद्ध भूमि के लिए नहीं बल्कि पानी के लिए लड़े जाएँगे। हाल की अतिवृष्टि इसका प्रमाण है, जिसने किसानों की मेहनत को पूरी तरह बरबाद कर दिया। वैज्ञानिकों का कहना है कि जब धरती का तापमान बढ़ता है तो वातावरण में आर्द्रता भी बढ़ती है। गरम हवा अधिक जलवाष्प रोककर रखती है और जब यह वाष्प वर्षा के रूप में गिरता है तो सामान्य बारिश की बजाय अत्यधिक और मूसलाधार बारिश होती है, जिससे बाढ़ जैसी स्थिति पैदा होती है।
अब सवाल यह है कि इस महा संकट से निपटा कैसे जाए। इसके लिए सबसे पहले ऊर्जा के क्षेत्र में परिवर्तन करना होगा। जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता कम करनी होगी और सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा और जलविद्युत जैसी अक्षय ऊर्जा को अपनाना होगा। भारत ने २०३० तक अपनी ५० प्रतिशत ऊर्जा अक्षय स्रोतों से प्राप्त करने का लक्ष्य रखा है। यह लक्ष्य तभी पूरा होगा जब इसकी दिशा में ठोस कदम तुरंत उठाए जाएँ। हर नागरिक को केवल पेड़ लगाने का संकल्प ही नहीं लेना चाहिए बल्कि लगाए गए पेड़ को जीवित रखने की जिम्मेदारी उठानी चाहिए। एक पेड़ सौ साँसों के बराबर है—यह संदेश घर-घर तक पहुँचाना जरूरी है।
कृषि क्षेत्र में भी सुधार आवश्यक है। सूक्ष्म सिंचाई, जल प्रबंधन, सेंद्रिय खेती और फसल विविधीकरण को अपनाना होगा। किसानों को जलवायु परिवर्तन से मुकाबला करने के लिए वैज्ञानिक प्रशिक्षण और आर्थिक सहायता मिलनी चाहिए। साथ ही शिक्षा व्यवस्था में भी पर्यावरण को स्थान देना आवश्यक है। स्कूलों और कॉलेजों में पर्यावरण शिक्षा अनिवार्य करनी होगी ताकि आने वाली पीढ़ियाँ बचपन से ही पर्यावरण-हितैषी सोच विकसित करें। मीडिया, समाचार पत्र और सामाजिक संगठन पर्यावरण जागरूकता फैलाने में सक्रिय भूमिका निभाएँ।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सहयोग की आवश्यकता है। पेरिस समझौते जैसे प्रयास तभी सफल होंगे जब विकसित देश अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करेंगे। विकसित राष्ट्रों ने औद्योगिक क्रांति के बाद सबसे अधिक प्रदूषण फैलाया है, इसलिए उनका कर्तव्य है कि वे विकासशील देशों को तकनीकी और आर्थिक मदद दें। जलवायु परिवर्तन का असर पूरी दुनिया पर पड़ता है, लेकिन इसका सबसे ज्यादा बोझ गरीब और कमजोर देशों पर पड़ता है।
ग्लोबल वॉर्मिंग केवल पर्यावरण का संकट नहीं, बल्कि मानव अस्तित्व का संकट है। यदि हमारी प्रगति शाश्वत नहीं होगी तो वही प्रगति हमारे विनाश का कारण बनेगी। यह ग्रह हमारी निजी संपत्ति नहीं है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों का अधिकार है। इसलिए यह हमारी जिम्मेदारी है कि इस तपती धरती को फिर से हरित, शाश्वत और जीवनदायी बनाएँ। पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है और जलवायु चक्र असंतुलित हो चुका है। सूखा, बाढ़, लू और समुद्र स्तर में वृद्धि ये सभी ग्लोबल वॉर्मिंग के लक्षण हैं। कृषि, शहरी जीवन, तटीय क्षेत्र और जैवविविधता इस संकट से बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। लेकिन यदि हम समय रहते अक्षय ऊर्जा को अपनाएँ, वृक्षों का संरक्षण करें, शाश्वत खेती की ओर लौटें और पर्यावरण शिक्षा को जीवन का हिस्सा बनाएँ तो इस संकट से लड़ना संभव है। सच यही है कि पृथ्वी बचेगी तभी भविष्य बचेगा।
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