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समाज का दर्पण बनती पत्रकारिता और नई दिशाएँ, सूचनात्मक, शिक्षाप्रद और संतुलित मीडिया की वास्तविक आवश्यकता

सामाजिक

Posted by admin on 2025-11-15 18:09:28

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समाज का दर्पण बनती पत्रकारिता और नई दिशाएँ, सूचनात्मक, शिक्षाप्रद और संतुलित मीडिया की वास्तविक आवश्यकता

समाज को राह दिखाता है मीडिया

देश की आजादी की लड़ाई में पत्रकारिता ने जितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उतनी ही महत्ता उसने आजादी के बाद भी समय-समय पर सिद्ध की है। पत्रकारिता केवल सूचना का माध्यम नहीं रही, बल्कि समाज सुधार, जनजागरण और लोकतंत्र की मजबूती का आधार स्तंभ बनी। परन्तु बदलते समय, तकनीक और सामाजिक-राजनीतिक दबावों के बीच पत्रकारिता का स्वरूप चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। अत्याचार, भ्रष्टाचार, दुराचार और अपराध जितनी तेज़ी से बढ़ रहे हैं, पत्रकारों पर हमले भी उतने ही बढ़े हैं।


मजहूर है कि मीडिया पर वही लोग हमला करते हैं, जो समाज की बुराइयों में डूबे हुए हैं। इनके काले कारनामे जब पत्रकारिता के दर्पण में उजागर होते हैं तो वे बौखला जाते हैं और प्रेस तथा पत्रकारों पर हमला करवाते हैं। दुर्भाग्य यह कि कई बार शासन-प्रशासन भी ऐसे लोगों के प्रति नरमी बरतता है। मामले दर्ज होते हैं, पर समाधान कम ही दिखता है। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए गंभीर चिंता का विषय है।

भारत में प्रत्येक वर्ष 16 नवम्बर को राष्ट्रीय प्रेस दिवस मनाया जाता है। यह दिन प्रेस की स्वतंत्रता, उसकी जिम्मेदारियों और लोकतंत्र में उसकी भूमिका के प्रति जागरूकता का प्रतीक है। प्रथम प्रेस आयोग ने पत्रकारिता की गरिमा और स्वतंत्रता की रक्षा हेतु एक प्रेस परिषद की संकल्पना की थी। परिणामस्वरूप 4 जुलाई 1966 को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया अस्तित्व में आई और 16 नवम्बर 1966 से उसने औपचारिक रूप से कार्य शुरू किया।


राष्ट्रीय प्रेस दिवस पत्रकारों के लिए केवल उत्सव का दिन नहीं, बल्कि स्वयं को पुनः समर्पित करने का अवसर है—यह याद दिलाने का समय कि पत्रकारिता एक जिम्मेदारी है, सिर्फ पेशा नहीं।

मीडिया को समाज का दर्पण भी कहा जाता है और दीपक भी। दर्पण इसलिए कि वह समाज की तस्वीर ठीक वैसे ही सामने लाए, जैसी वह है। दीपक इसलिए कि वह अज्ञान, अंधकार और भ्रम को दूर कर सही दिशा दिखाता है।


लेकिन कभी-कभी स्वार्थ, दबाव और लाभ-हानि को देखते हुए मीडिया समतल दर्पण बनने के बजाय उत्तल या अवतल दर्पण की तरह दृष्टि को विकृत करने लगता है। खोजी पत्रकारिता के नाम पर पीली और नीली पत्रकारिता का बढ़ना, तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना, सनसनी बेचने की प्रवृत्ति और गलत सूचना फैलाने के मामले—ये सब पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों के विपरीत हैं।

भारतीय प्रेस परिषद ने भी अपनी कई रिपोर्टों में कहा है कि प्रेस के खिलाफ शिकायतें बढ़ रही हैं, जो चिंता का विषय है।

पत्रकारिता का आधार तथ्य, संतुलन, वस्तुनिष्ठता और सत्य होता है। चाहे पत्रकार प्रशिक्षित हो या अप्रशिक्षित, यह सभी को पता है कि पत्रकारिता में तथ्य सर्वोपरि हैं। फिर भी आज अक्सर देखा जाता है कि तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर या घटाकर प्रस्तुत किया जाता है। सनसनी की होड़ में कई मीडिया संस्थान तथ्यों की जगह भावनाओं और विचारों को प्राथमिकता देने लगे हैं। इससे समाचारों का संपादकीयकरण बढ़ गया है, जिससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता प्रभावित होती है।


समाचार विचारों की जननी होती है, परंतु विचारों पर आधारित समाचार पत्रकारिता के लिए अभिशाप बन जाते हैं। समाज के सामने प्रस्तुति का यह अंतर बड़ा भ्रम पैदा करता है।

रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स (RSF) द्वारा जारी 2025 वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 180 देशों में से 151वें स्थान पर है। यह स्थिति पिछले वर्षों की तुलना में थोड़ी बेहतर जरूर है—2024 में 159वां और 2023 में 161वां स्थान—फिर भी यह बहुत गंभीर श्रेणी में आता है। भारत अपने पड़ोसी देशों नेपाल (90), मालदीव (104), श्रीलंका (139) और बांग्लादेश (149) से भी नीचे है। दूसरी ओर, नॉर्वे, एस्टोनिया और नीदरलैंड प्रेस स्वतंत्रता में दुनिया में शीर्ष स्थान पर हैं। आर्थिक दबावों, राजनीतिक हस्तक्षेप और मीडिया के कॉर्पोरेटिकरण ने प्रेस स्वतंत्रता के लिए परिस्थितियों को कठिन बना दिया है। भारत जैसे विशाल और विविधता वाले देश में मीडिया की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। यहाँ एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो अभी भी शिक्षा, संसाधनों और आधुनिक जानकारी से वंचित है। मीडिया का कर्तव्य है कि वह उनके बीच जागरूकता, वैज्ञानिक सोच और सामाजिक सुधार की भावना जगाए। 


स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पत्रकारिता एक मिशन थी। आपातकाल के दौरान भी प्रेस ने संघर्ष कर लोकतंत्र के लिए आवाज बुलंद की। परन्तु धीरे-धीरे पत्रकारिता व्यवसायीकरण के दौर में प्रवेश कर गई। आज खबर से अधिक खबर देने वाला, लेख से अधिक लेख लिखने वाला और तथ्य से अधिक व्यक्ति की पहचान मायने रखने लगी है। कुछ लोग पत्रकारिता को सिर्फ अपनी छवि बनाने का माध्यम मानते हैं। छद्म नाम से लेखन, पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग और प्रचारात्मक पत्रकारिता ने पत्रकारिता की विश्वसनीयता को प्रभावित किया है।


लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रेस को कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के साथ चौथा स्तंभ माना जाता है। यह जनता और सत्ता के बीच सेतु का काम करता है। प्रेस की स्वतंत्रता इसलिए जरूरी है क्योंकि जब तक मीडिया स्वतंत्र और निर्भीक रहेगा, सत्ता केंद्रों को जवाबदेही के दायरे में रखा जा सकेगा। जहाँ प्रेस पर नियंत्रण होता है—जैसे चीन, जापान, जर्मनी और पाकिस्तान—वहाँ लोकतंत्र का स्वर सीमित हो जाता है। भारत में प्रेस को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता प्राप्त है, पर चुनौतियाँ भी अधिक हैं। आज समाचार संस्थानों पर राजनीतिक और आर्थिक दबाव पहले से कहीं ज्यादा हैं। इसके कारण खबरों में पक्षधरता और असंतुलन दिखने लगा है।



मीडिया समाज को प्रभावित करता है, और कई बार समाज भी मीडिया को प्रभावित करता है। यह एक पारस्परिक प्रक्रिया है। परंतु जब मीडिया अपनी मूल जिम्मेदारी भूलकर केवल प्रभाव के दबाव में काम करने लगे, तब लोकतंत्र कमजोर होता है।

आज सूचना के साथ-साथ भ्रामक सूचना और दुष्प्रचार भी तेजी से फैल रहे हैं। ऐसे समय में मीडिया की भूमिका पहले से कहीं ज्यादा जिम्मेदारीपूर्ण हो जाती है। पत्रकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि वे सत्य, तथ्य और नैतिकता के साथ समझौता न करें।


पत्रकारिता समाज का दर्पण है—साफ, निष्पक्ष और सत्य का प्रतिबिंब दिखाने वाला दर्पण। अगर यह दर्पण धुंधला हो जाए तो समाज की दिशा भी अस्पष्ट हो जाती है। समय की मांग है कि पत्रकारिता अपने मूल सिद्धांतों—सत्य, वस्तुनिष्ठता, संतुलन और जनहित—को पुनः स्थापित करे। मीडिया को न केवल सवाल पूछने चाहिए, बल्कि समाज को सही दिशा भी दिखानी चाहिए।


राष्ट्रीय प्रेस दिवस हमें यही याद दिलाता है कि प्रेस केवल सत्ता का प्रहरी नहीं, बल्कि लोकतंत्र का विश्वास है।

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