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परिवार की सुख-समृद्धि और निरोगी काया के लिए बिहार से निकला छठ महापर्व अब पहुंचा देश-विदेश तक

राज्य बिहार

Posted by admin on 2025-10-25 14:33:11

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परिवार की सुख-समृद्धि और निरोगी काया के लिए बिहार से निकला छठ महापर्व अब पहुंचा देश-विदेश तक

पटना।

आस्था, श्रद्धा और पवित्रता का प्रतीक छठ महापर्व अब सीमाओं से परे जा चुका है। बिहार की मिट्टी से उपजा यह पर्व आज पूरे भारत ही नहीं, बल्कि अमेरिका, इंग्लैंड, जापान, नेपाल, थाईलैंड और मालदीव जैसे देशों में भी पूरी श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जा रहा है। परिवार की सुख-समृद्धि, संतान की दीर्घायु और निरोगी जीवन की कामना के लिए मनाया जाने वाला यह पर्व भारतीय संस्कृति की सादगी और आध्यात्मिकता का जीवंत उदाहरण है।

छठ व्रत की शुरुआत ‘नहाय-खाय’ से होती है। यह व्रत पूरी तरह पवित्रता, अनुशासन और आत्मसंयम पर आधारित होता है। व्रती सबसे पहले स्नान कर स्वयं को शुद्ध करते हैं और फिर कद्दू की सब्जी, चने की दाल और अरवा चावल का भोजन कर व्रत की शुरुआत करते हैं। इस दौरान केवल सेंधा नमक का ही उपयोग किया जाता है। अगले दिन शाम को ‘खरना’ मनाया जाता है, जिसमें व्रती गुड़ से बनी खीर और पुरी का प्रसाद बनाते हैं और अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य अर्पित कर प्रसाद ग्रहण करते हैं। इसके बाद तीसरे दिन संध्या को डूबते सूर्य की पूजा और चौथे दिन प्रातःकाल उदयाचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने के बाद व्रत का समापन होता है।

वैदिक काल से जुड़ा सूर्य उपासना का महत्व

छठ पर्व की जड़ें वैदिक काल से जुड़ी हैं। उस समय सूर्य को एक प्रमुख देवता के रूप में स्थापित किया गया था। मूर्ति पूजा का चलन नहीं था, बल्कि मंत्रोच्चार के माध्यम से ही सूर्य की उपासना की जाती थी। सूर्य को साक्षात ईश्वर का प्रतिरूप माना जाता था। इस विश्वास ने ‘सौर पंथ’ की नींव रखी, जो सूर्य की आराधना को सर्वोच्च मानता था।

इतिहास के अनुसार, सूर्य की मूर्ति की प्रथम झलक गया की कला में देखने को मिलती है, जिसका समय ईसा की प्रथम शताब्दी माना गया है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र शाम्ब—जो माता जामवंती से उत्पन्न हुए थे—कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गए थे। उन्होंने वर्षों तक सूर्य की कठोर आराधना की, जिसके फलस्वरूप वे स्वस्थ हुए। श्रद्धा से प्रसन्न होकर शाम्ब ने तीन सूर्य मंदिरों—कोणार्क, कालपी और मुल्तान—का निर्माण करवाया।

सूर्य मंदिरों की गौरवगाथा

कोणार्क सूर्य मंदिर, जिसे “ब्लैक पगोडा” भी कहा जाता है, कलिंग स्थापत्य शैली का अद्भुत नमूना है। इसका निर्माण सम्राट नरसिंह देव प्रथम ने 1238 से 1268 ईस्वी के बीच कराया था। यह मंदिर पुरी से लगभग 30 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में समुद्र तट के समीप स्थित है। कोणार्क में सूर्य की प्रतिमा उदयकालीन स्वरूप में स्थापित है, जबकि कालपी मंदिर में मध्यान्हकालीन और मुल्तान मंदिर में संध्याकालीन सूर्य की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित थीं।

मुल्तान का यह सूर्य मंदिर अपने स्वर्णमंडित वैभव के लिए प्रसिद्ध था। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा-वृत्तांत में इसका विस्तृत वर्णन किया है। बाद में अलबरूनी ने इस मंदिर में लकड़ी की प्रतिमा होने का उल्लेख किया। माना जाता है कि आक्रमणकारियों द्वारा मूल स्वर्ण मूर्ति को लूटे जाने के बाद उसकी जगह लकड़ी की मूर्ति स्थापित की गई थी। महमूद गजनवी और औरंगज़ेब के हमलों के बाद यह मंदिर पूरी तरह नष्ट हो गया। आज मुल्तान पाकिस्तान में है, जहां इस प्राचीन धरोहर के अवशेष भी नहीं बचे हैं।

देश-विदेश में बढ़ती श्रद्धा

बिहार से शुरू हुआ यह पर्व आज भारत के लगभग हर राज्य में मनाया जाता है। मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, लखनऊ जैसे महानगरों में गंगा-घाटों के अलावा कृत्रिम तालाबों और नदी तटों पर छठ व्रती श्रद्धा के साथ सूर्य को अर्घ्य देते दिखाई देते हैं। विदेशों में बसे भारतीय भी इस परंपरा को निभा रहे हैं। अमेरिका, इंग्लैंड, नेपाल और जापान में प्रवासी भारतीय समुदाय द्वारा बड़े स्तर पर छठ घाट बनाए जाते हैं।

आधुनिक पीढ़ी भी अब इस पर्व से जुड़ रही है। विदेशी संस्कृति के बीच पले-बढ़े युवा भारतीय इस व्रत को अपने “रूट्स” से जुड़ने का माध्यम मानते हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से छठ की तैयारियां और पूजन विधि अब वैश्विक स्तर पर साझा की जाती है।

शुद्धता और आडंबरहीन आस्था का पर्व

छठ पर्व की सबसे बड़ी विशेषता इसकी सरलता और पवित्रता है। इस व्रत में कोई दिखावा या आडंबर नहीं होता। यह केवल आत्मसंयम, आस्था और कृतज्ञता का पर्व है। व्रती उपवास रखते हुए अपनी और अपने परिवार की खुशहाली के लिए सूर्य देव से आशीर्वाद मांगते हैं। महिलाएं पारंपरिक गीत गाती हैं—“कांचा ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए…”—जो लोकसंस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं।

आज जब आधुनिकता के दौर में पारंपरिक त्यौहारों की मौलिकता पर सवाल उठने लगे हैं, तब छठ महापर्व भारतीय संस्कृति की जड़ों को संजोए रखने का जीवंत उदाहरण बन चुका है। यह केवल सूर्य उपासना नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भी प्रतीक है।

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